सूतजी बोले – हे श्रेष्ठ मुनियों ! अब आगे की कथा कहता हूं, सुनो – पहले समय में उल्कामुख नाम का एक बुद्धिमान राजा था | वह सत्यवक्ता और जितेंन्द्रीय था | प्रतिदिन देव स्थानों पर जाता तथा गरीबों को धन देकर उनके कष्ट दूर करता था | उसकी पत्नी कमल के समान मुख वाली और सती साध्वी थी | भद्रशीला नदी के तट पर उन दोनों ने श्री सत्यनारायण का व्रत किया | उस समय में वहां एक साधु वैश्य आया | उसके पास व्यापार के लिए बहुत सा धन था | वह नाव को किनारे पर ठहरा कर राजा के पास आ गया और राजा को व्रत करते हुए देखकर विनय के साथ पूछने लगा – हे राजन ! भक्तियुक्त चित् से आप क्या कर रहे हैं ? मेरी सुनने की इच्छा है ! सो आप यह मुझे बतलाइये |
राजा बोला – हे साधु ! अपने बांधवों के साथ पुत्रादि की प्राप्ति के लिए यह महाशक्तिमान सत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन किया जा रहा है| राजा के वचन सुनकर साधु आदर से बोला – हे राजन ! मुझसे इसका सब विधान कहो, मैं भी आपके कथन अनुसार इस व्रत को करूंगा | मेरे भी कोई संतान नहीं है और इससे निश्चित ही होगी | राजा से सब विधान सुनकर व्यापार से निवृत हो वह आनंद के साथ घर गया | साधु ने अपनी स्त्री से संतान देने वाले उस व्रत का समाचार सुनाया और कहा की जब मेरे संतान होगी तब मैं इस व्रत को करूंगा |
साधु ने ऐसे वचन अपने स्त्री लीलावती से कहे | एक दिन उसकी स्त्री लीलावती पति के साथ आनंदित हो सांसारिक धर्म में प्रवृत होकर सत्यनारायण भगवान की कृपा से गर्भवती हो गई तथा दसवें महीने में उसके एक सुंदर कन्या का जन्म हुआ | दिनों – दिन वह इस तरह बढ़ने लगी जैसी शुक्ल पक्ष का चंद्रमा बढ़ता है | कन्या का नाम कलावती रखा गया | तब लीलावती ने मीठे शब्दों में अपने पति से कहा कि जो अपने संकल्प किया था कि भगवान का व्रत करूंगा, अब आप उसे करिए | साधु बोला, है प्रिये ! इसके विवाह पर करूंगा | इस प्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन दे वह नगर को गया | कलावती पितृ ग्रह में वृद्धि को प्राप्त हो गई | साधु ने जब नगर में सखियों के साथ अपनी पुत्री को देखा तो तुरंत दूत बुलाकर कहा कि पुत्री के वास्ते कोई सुयोग्य वर देख कर लाओ |
साधु की आज्ञा पाकर दूत कंचन नगर पहुंचा और वहां पर बड़ी खोज और देखभाल कर लड़की के लिए सुयोग्य वणिक पुत्र को ले आया | उसे सुयोग्य लड़के को देखकर साधु ने अपनी बंधु बांधवों सहित प्रश्नचित अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया, किंतु दुर्भाग्य से विवाह के समय भी उस व्रत को करना भूल गया | तब श्री भगवान क्रोधित हो गए और श्राप दिया कि तुम्हें दारुण दुःख प्राप्त होगा | अपने कार्य में कुशल साधु बनिया जामाता सहित समुद्र के समीप स्थित रतनपुर नगर में गया और वहां दोनों ससुर जमाई चंद्रकेतु राजा के उस नगर में व्यापार करने लगे | एक रोज भगवान सत्यनारायण की माया से प्रेरित कोई चोर राजा का धन चुराकर भागा जा रहा था, किंतु राजा के दूतो को आता देखकर चोर ने घबराकर भागते हुए राजा के धन को वही चुपचाप रख दिया जहां वह ससुर जमाई ठहरे हुए थे | जब दूतो ने उस साधु वैश्य के पास राजा के धन को रखा देखा तो वे दोनों को बांधकर ले गये और प्रसन्नता से दौड़ते हुए राजा के समीप जाकर बोले – यह दो चोर हम पकड़ कर लाए हैं, देखकर आज्ञा दें | तब राजा की आज्ञा से उनको कठोर कारावास में डाल दिया गया और उनका सब धन छीन लिया |
सत्यनारायण भगवान की श्राप द्वारा उनकी पत्नी भी घर पर बहुत दुखी हुई और घर पर जो धन रखा था, चोर चुराकर ले गये | शारीरिक व मानसिक पीड़ा तथा भूख प्यास से अती दुखित हो अन्न की चिंता में कलावती एक ब्राह्मण के घर गई | वहां उसने सत्यनारायण भगवान का व्रत होते देखा, फिर कथा सुनी तथा प्रसाद ग्रहण कर रात को घर आई | माता ने कलावती से कहा – हे पुत्री ! अब तक कहां रही व तेरे मन में क्या है ? कलावती बोली – हे माता ! मैंने एक ब्राह्मण के घर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत देखा है | कन्या के वचन सुनकर लीलावती भगवान के पूजन की तैयारी करने लगी | लीलावती ने परिवार और बंधुओ सहित श्री सत्यनारायण भगवान का पूजन किया और वर मांगा कि मेरे पति और दामाद शीघ्र आ जावें | साथ ही प्रार्थना की की हम सब का अपराध क्षमा करो |
सत्यनारायण भगवान इस व्रत से संतुष्ट हो गए और राजा चंद्रकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर कहा – हे राजन दोनों वैश्य को प्रात: ही छोड़ दो और उनका सब धन जो तुमने ग्रहण किया है दे दो, नहीं तो मैं तेरा धन, राज्य, पुत्रादि आदि सब नष्ट कर दूंगा | राजा से ऐसे वचन कहकर भगवान अंतर्ध्यान हो गए | प्रातः काल राजा चंद्रकेतु ने सभा में अपना स्वप्न सुनाया, फिर दोनों वणिक पुत्रों को कैद से मुक्त कर सभा में बुलाया | दोनों ने आते ही राजा को नमस्कार किया | राजा मीठे वचनों से बोल – हे महानुभवो ! भावीवश ऐसा कठिन दुख प्राप्त हुआ है, अब तुम्हें कोई भय नहीं | ऐसा कह कर राजा ने उनको नए-नए वस्त्र आभूषण पहनाए तथा उनका जितना धन लिया था, उससे दुगना धन देकर आदर सहित विदा किया | दोनों वैश्य अपने घर को चल दिए |
|| इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा तृतीय अध्याय संपूर्णम ||