ऋषि पंचमी की कथा भारत देश में सुनी जाने वाली एक महत्वपूर्ण कथा है जो की सप्त ऋषियों की महिमा के बारे में बताती है। यह कथा विशेष रूप से महिलाओं के द्वारा सुनी जाती है, क्योंकि यह व्रत उनके लिए विशेष महत्व रखता है ।
ऋषि पंचमी की कथा
विदर्भ देश में उत्तंक नामक एक सदाचारी ब्राह्मण निवास करता था। उनकी पत्नी सुशीला बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी। उनके एक पुत्र और एक पुत्री थी। विवाह योग्य होने पर उन्होंने समान कुल के वर के साथ अपनी कन्या का विवाह कर दिया। कुछ दिनों बाद वह कन्या विधवा हो गई। दुखी ब्राह्मण दम्पति अपनी कन्या सहित गंगा के तट पर कुटिया बनाकर रहने लगे। एक दिन ब्राह्मण की कन्या सो रही थी कि उसका शरीर कीड़ों से भर गया। कन्या ने सारी बात अपनी मां से कही। मां ने अपने पति से सब कहते हुए पूछा- हे प्राणनाथ! मेरी साध्वी कन्या की ऐसी स्तिथि होने का क्या कारण है?
उत्तंक ब्राह्मण ने समाधि लगाकर इस घटना का पता लगाया और बताया की, पूर्व जन्म में भी यह कन्या एक ब्राह्मणी थी। इसने रजस्वला होते ही बर्तन को छू लिया था। इस जन्म में भी इसने लोगों की देखा-देखी कर भाद्रपद शुक्ल पंचमी अर्थात ऋषि पंचमी के दिन इसका व्रत नहीं किया। इसलिए इसको ये दोष भोगना पड़ रहा है, और इसके शरीर में कीड़े पड़े हैं। धर्म-शास्त्रों की मान्यता यह है कि, रजस्वला स्त्री पहले दिन चाण्डालिनी के रूप में, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी के रूप में, तथा तीसरे दिन धोबिन के समान अपवित्र होती है। वह चौथे दिन ही स्नान करके शुद्ध होती है। यदि यह सच्चे मन से अब भी ऋषि पंचमी का व्रत करें तो भगवान इसके सारे दुख दूर कर देंगें और यह अपने अगले जन्म में अखण्ड सौभाग्य प्राप्त करेगी।
पिता की आज्ञा का पालन कर पुत्री ने विधिपूर्वक ऋषि पंचमी का व्रत एवं पूजन किया। उस व्रत के प्रभाव से वह सभी दुखों से मुक्त हो गई। अगले जन्म में उसे अटल सौभाग्य सहित सभी सुखों का भोग मिला ।