सूतजी बोले – हे ऋषियों ! मैं और भी कथा कहता हूं, सुनो ! प्रजापालन में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था | उसने भी भगवान का प्रसाद त्यागकर बहुत दुख पाया | एक समय वन में जाकर वन्य पशुओं को मारकर बड के पेड़ के नीचे आया, वहां उसने ग्वालो को भक्ति – भाव से बांधवों सहित सत्यनारायणजी का पूजन करते देखा | राजा देखकर भी अभिमान वश वहां नहीं गया और न ही नमस्कार ही किया |
जब ग्वालो ने भगवान का प्रसाद उसके सामने रखा तो वह प्रसाद को त्यागकर अपनी सुंदर नगरी को चला | वहीं उसने अपना सब कुछ नष्ट पाया तो वह जान गया कि यह सब भगवान ने किया है | तब वह विश्वास कर ग्वालो के समीप गया और विधिपूर्वक पूजन कर प्रसाद खाया तो सत्यदेव की कृपा से पहले जैसा था, वैसा ही हो गया फिर दीर्घकाल तक सुख भोगकर मरने पर स्वर्ग लोक को गया |
जो मनुष्य इस परम दुर्लभ व्रत को करेगा भगवान की कृपा से उसे धन-धान्य की प्राप्ति होगी | निर्धन धनी और बंदी बंधन से मुक्त होकर निर्भय हो जाता है | संतानहीनों को संतान प्राप्ति होती है तथा सब मनोरथ पूर्ण होकर अंत में बैकुंठ धाम को जाता है |
जिन्होंने पहले इस व्रत को किया अब उनके दूसरे जन्म की कथा कहता हूं |
वृद्ध शतानंद ब्राह्मण ने सुदामा का जन्म लेकर मोक्ष को पाया |
उल्कामुख नाम का राजा दशरथ होकर बैकुंठ को प्राप्त हुआ |
साधु नाम के वैश्य ने मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष को प्राप्त किया |
महाराज तुंगध्वज ने स्वयंभू होकर भगवान में भक्ति युक्त कम कर मोक्ष प्राप्त किया |
|| इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा पंचम अध्याय संपूर्णम ||