हे मेरे प्रभु करुणा सिन्धु करुणा कीजिये ।
हूँ अधम आधीन अशरण अब शरण में लिजिये ॥
खा रहा गोते हूँ मैं भवसिन्धु के मंझधार में ।
आसरा है दूसरा कोई न अब संसार में ॥
मुझमे है जपतप न साधन और नहिं कुछ ज्ञान है ।
निर्लज्जता है एक बाकी और बस अभिमान है ॥
पाप बोझ से लदी नैया भंवर में आ रही ।
नाथ दौड़ो, अब बचाओ जल्द डूबी जा रही ॥
आप भी यदि छोड़ देगें, फिर कहाँ जाऊंगा मैं ।
जन्म दुःख से नाव कैसे पार कर पाऊँगा मैं ॥
सब जगह ‘मंजुल’ भटक कर ली शरण अब आपकी ।
पार करना या न करना दोनों है मर्जी आपकी ॥
तू दयालु दीन हौं तू दानी, हौं भिखारी ।
हौं प्रसिद्ध पात की, तू पाप पुञ्ज हारी ॥
नाथ तू अनाथ को अनाथ कौन मोसो ।
मो समान आरत नहिं, आरति हर तोंसे ॥
ब्रह्मा तू, हौं जीव, तू ठाकुर, हौं चेरो।
तात मात गुरु सखा, तू सब विधि हितु मेरो ॥
तोहि मोहि नाते अनेक, मोनिये जो भावै।
ज्यों त्यों ‘तुलसी’ कृपालु चरण सरण पावै ॥